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मई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जीवन बगिया

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आज जीवन पर हल्के - फुल्के अंदाज़ में एक कविता प्रस्तुत है  जीवन बगिया है ये, न मिलेंगे सदैव फूल , न हमेशा रहेंगे शूल, दुःख-सुख साथ चलेंगे,  तुम बस जीने में रहना मशगूल।  फुल स्पीड मे चलती जीवन गाड़ी में , कईं आएँगे स्पीड ब्रेकर, स्लो होंगे तब पहिये इसके, पर रुकेंगे कभी ये है तुम्हारी भूल।  भाई! जीवन बगिया है ये, न मिलेंगे सदैव फूल,  न हमेशा रहेंगे शूल, दुःख-सुख साथ चलेंगे,  तुम बस जीने में रहना मशगूल।  कभी लगेगा हो नील सी ऊँचाई पर, कभी पाओगे खुद को गर्त सी गहराई में,  निराश न होना तब भी जब लगे, जैसे हो तुम पैरों की धूल।  आखिर, जीवन बगिया है ये , न मिलेंगे सदैव फूल,  न हमेशा रहेंगे शूल, दुःख-सुख साथ चलेंगे, तुम बस जीने में रहना मशगूल।  पतझड़ आया जो रुलाने, तो हँसाने, तुम्हें खुशी मे भिगाने , सावन भी जरूर आयेगा, बस मत होना तुम कभी मगरूर।  अरे! जीवन बगिया है ये, न मिलेंगे सदैव फूल,  न हमेशा रहेंगे शूल, दुःख-सुख साथ चलेंगे,  तुम बस जीने में रहना मशगूल।  कभी किसी पर प्रेम लुटेगा, आक्रोश भी उठेगा संग कभी, गरम हो जाये दिमाग तुम्हारा तो, 

संभल जाओ धरा वालों

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क्यों है आजकल विश्वास का परिणाम विश्वासघात, हर जगह बिछी हो जैसे शतरंज की कोई बिसात।  किसी के लिए मायने नहीं रखते क्यूँ किसी के जज़्बात,  रिश्तों में क्यूँ  मिलती है अब नफरत की सौगात।  भावनाशून्य इस जग में किससे करें अपेक्षा , अपने खुद ही नहीं कर पा रहे अपने रिश्तों की रक्षा।  मासूमियत निवेदन तो जैसे गुम है , भावनाएँ सहनशीलता जैसे कोई स्वप्न है।   हर एक भावना लगती अब तो सुन्न है, ये सब देख के मन आज बड़ा ही खिन्न है।  क्यूँ अपनों को अपनों से बैर है एक नफरत सी हर और है,  ईर्ष्या छायी घनघोर है  बस "स्व"  का शोर चहुँओर है।  ये स्वार्थपरता कहाँ से आ गई इस देश में , राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे जहाँ वनवासी के भेस में।   जिस धरती पर कृष्ण अवतार दो माओं के बाल  थे , आज एक माँ को रख नहीं सकते उसके चार लाडले लाल हैं।   हर अच्छाई का जैसे हो रहा अब अंत है , नहीं काम आते प्रवचन न उपदेश न सन्त हैं।   अनेकता में एकता जो पहचान थी इस धरा की ,  एकता तो अनेकता (जाति -पाँति ) ने जाने कब की हरा दी।   शायद इसीलिए अब बार बार यूँ होते शिव कुपित हैं, दिखाते अ

हजारों चेहरे संग मुस्कुराते हैं

जब भी मिलती हूँ तुमसे  मन में हज़ारों भाव हिलोरे खाते हैं  अश्कों में भीगे  ये लब  फिर झट से मुस्काते हैं  जब तक बिखेर न दूँ हर भाव  तुम पर, शब्द रूप मे, मन के कीड़े तब तक यूँही कुलबुलाते हैं।  फिर  जब खोल के बैठ जाती हूँ तुम्हें  वो पुराने किस्से खुद गुनगुनाते हैं , पढ़ते पढ़ते दृश्य घूम जाते हैं  आँखों के समक्ष  और  पलकों से नीचे  दो आंसू ढुलक आते हैं  हरदम रोते सुबकते इन होठों को  मुस्कान तो दी तुम्हीं ने थी आज मेरी इस मुस्कान को देख  हजारों चेहरे संग मुस्कुराते हैं।  (स्वरचित)   dj    कॉपीराईट  © 1999 – 2015 Google इस ब्लॉग के अंतर्गत लिखित/प्रकाशित सभी सामग्रियों के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। किसी भी लेख/कविता को कहीं और प्रयोग करने के लिए लेखक की अनुमति आवश्यक है। आप लेखक के नाम का प्रयोग किये बिना इसे कहीं भी प्रकाशित नहीं कर सकते।   dj    कॉपीराईट  © 1999 – 2015 Google मेरे द्वारा इस ब्लॉग पर लिखित/प्रकाशित सभी सामग्री मेरी कल्पना पर आधारित है। आसपास के वातावरण और घटनाओं से प्रेरणा लेकर लिखी गई हैं। इनका किसी अन्य से साम्य एक संयोग मात्र ही हो सकता है